
*देश दौड़ रहा है पर हम हाँफ रहे हैं*
बाँदा ऐसी तस्वीरें बुन्देलखण्ड में आम हैं यह वही बुन्देलखण्ड है जो एक दशक पहले पूरे भारत को गर्मियों में हरी सब्जियाँ उपलब्ध कराता था , लेकिन फिर आया कंट्रक्शन वाला भारत जिसमें सड़कें और बिल्डिंग्स बननी थीं सो हमने उन्हें रेत, पत्थर, और पेड़ देने शुरू कर दिए ताकि भारत दौड़ सके भारत तो दौड़ा लेकिन हम अपंग होते गए अब हमारी अपंगता का आलम यह है कि हमारे नौनिहालों के चेहरे पर से चमक गायब है।
यह वही बुन्देलखण्ड है जिससे बेतवा, केन, धसान, पहूज,यमुना, चम्बल,मन्दाकिनी,बागीन ,ज़ामनी,सिमरी, सोन और सिंध जैसी नदियाँ बहतीं थीं एक समय जिन नदियों में ककड़ी, खीरा, तरबूज,खरबूज,लौकी, और कद्दू की हरियाली दिखाई देती थी आज उन्हीं नदियों में जेसीबी, क्रेन, ट्रक दिखाई देते हैं।
नदियाँ हाँफ रहीं हैं लोग कीचड़ पीने को मजबूर हैं भूमिगत जल पूरी तरह सूख चुका है और साथ में सूख गया है हमारा हलक लेकिन हम इस पर कोई विरोध न करेंगें क्योंकि हम अब इस लायक रहे ही नहीं क्योंकि हमारी आबादी का एक हिस्सा अपने गाँव छोड़कर शहरों-शहरों भटक रहा हैं।
सबाल यह उठता है कि सरकारें क्या कर रहीं हैं तो इसका जबाब है कि सरकारें नदियों को खनन के लिए, पहाड़ों को तोड़ने के लिए, और पेड़ों को काटने के लिये नदियों,पहाड़ों और जंगलों को ठेके पर या लीज़ पर दे रहीं हैं।
किससे आशा करें, किससे करें शिकायत क्योंकि जिनको प्रकृति का साथ देना था जिन पर प्रकृति को बचाने की जिम्मेदारी थीं उन्हीं ने प्रकृति के विनाश के लिए परसेंटेज ले रखा है।
हम दुःखित हैं तहसील और जिले पर चिल्लाते भी हैं बस हमारी अबाजें उन कार्यालयों तक नहीं पहुंचतीं क्योंकि कार्यालय वातानकूलित हैं इसलिए उनमें बैठने वालों को एहसास ही नहीं होता कि धरती आग के हवाले हो चुकी है।