
संवाददाता /नैमिष टुडे
भारत में न्यायपालिका की भाषा को लेकर एक बड़ा सवाल उठता है कि क्या वास्तव में सभी नागरिकों को समान न्याय मिल पाता है? भारत जैसे बहुभाषी देश में, जहां संविधान ने 22 भाषाओं को मान्यता दी है, वहां न्यायपालिका में अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहना अपने आप में एक भेदभावपूर्ण स्थिति को दर्शाता है। न्याय केवल कुछ लोगों के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए होता है, लेकिन जब उसकी भाषा आम जनता की समझ से परे हो, तो वह न्याय कितना प्रभावी रह जाता है?
भारत में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में अधिकतर कार्य अंग्रेजी में होते हैं। यह एक ऐसी सच्चाई है जिससे आम जनता अनजान नहीं है। एक गरीब मजदूर, किसान, या साधारण नागरिक, जिसे अंग्रेजी नहीं आती, क्या वह अपने अधिकारों की सही समझ रख सकता है? क्या वह अपने पक्ष को प्रभावी ढंग से रख सकता है? जब कानून की भाषा ही उसे समझ नहीं आती, तो वह न्याय की उम्मीद किस तरह कर सकता है? यह स्थिति खासकर ग्रामीण भारत के लिए और भी गंभीर हो जाती है, जहां अधिकांश लोग अपनी मातृभाषा या हिंदी में ही सोचते और बोलते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में अधिकतर फैसले अंग्रेजी में ही दिए जाते हैं। इन फैसलों को आम लोगों तक पहुँचाने का कोई कारगर तरीका नहीं अपनाया जाता। निचली अदालतों में जरूर क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग होता है, लेकिन जब किसी मामले की अपील उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में होती है, तो वही व्यक्ति जो अपनी भाषा में न्याय के लिए संघर्ष कर रहा था, अचानक एक ऐसी भाषा के घेरे में आ जाता है जो उसकी समझ से परे होती है। यह न्याय से वंचित करने का एक अप्रत्यक्ष तरीका बन जाता है।
एक और समस्या वकीलों और न्यायाधीशों के स्तर पर भी देखी जा सकती है। न्यायपालिका में प्रवेश के लिए अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान अनिवार्य हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि कई प्रतिभाशाली लोग, जो क्षेत्रीय भाषाओं में दक्ष होते हैं, न्यायपालिका से दूर रह जाते हैं। यह एक ऐसा ढांचा बना देता है जहां केवल एक विशेष वर्ग के लोगों का वर्चस्व रहता है, और आम जनता का जुड़ाव न्यूनतम रह जाता है।
सुप्रीम कोर्ट में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में बहस करना संभव नहीं है, जबकि संविधान में यह स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि सरकार को हिंदी को बढ़ावा देना चाहिए। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों का हिंदी अनुवाद उपलब्ध कराने का कदम उठाया, लेकिन यह काफी नहीं है। अगर फैसले हिंदी में उपलब्ध भी हो जाएं, तब भी सुनवाई की प्रक्रिया और दलीलों का अंग्रेजी में होना आम जनता के लिए एक बाधा बनी रहेगी।
इस समस्या के समाधान के लिए न्यायपालिका को अधिक समावेशी बनाना होगा। न्यायिक प्रक्रियाओं को बहुभाषी बनाना, निर्णयों को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराना, और क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देना आवश्यक है। आम नागरिक की भाषा में न्याय उपलब्ध कराना केवल संवैधानिक कर्तव्य नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व भी है। जब तक भाषा के आधार पर यह अदृश्य भेदभाव खत्म नहीं होता, तब तक न्याय का वास्तविक अर्थ अधूरा ही रहेगा।
*अधिवक्ता वैभव शुक्ला*
(दिल्ली उच्च न्यायालय एवं जिला न्यायालय)