यूपी में भाजपा को दोबारा सरकार बनाने का जनादेश मिला है, तो इसमें प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मेहनत, वैयक्तिक लाभ देने वाली महिला केंद्रित योजनाएं और बसपा समर्पित मतों का स्थानांतरण अहम कारण हैं।उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि साढ़े तीन दशक बाद राज्य में कोई पार्टी लगातार दूसरी बार सरकार बना रही है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि प्रदेश के चुनाव ने देश की सियासत को नई दिशा दे दी है। नतीजा भाजपा के लिए इसलिए भी अहम और अद्भुत है कि देश के सबसे खास सूबे में पार्टी का लगातार चौथी बार झंडा बुलंद हुआ है। यह उपलब्धि किसी भी राजनीतिक दल के लिए गर्व और अहंकार, दोनों का कारण बन सकती है।
दो ध्रुवीय चुनाव आमतौर पर भाजपा के लिए मुफीद नहीं होते, मगर यह भाजपा की चुनावी रणनीति का ही कमाल था कि मोदी-योगी की जोड़ी के समर्थन के नाम पर लोगों ने विधायकों-मंत्रियों के खिलाफ अपनी नाराजगी भुला दी। चुनाव में उम्मीदवार का सवाल गौण हो गया। वह भी तब, जब भाजपा चाहकर भी लोगों की नाराजगी का सामना कर रहे विधायकों के टिकट थोक में नहीं काट सकी।
कथित बौद्धिकों की जुगाली को नजरअंदाज कर दें, तो नतीजों ने साफ किया है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में फिर से हिंदुत्व और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन साधने में कामयाब रही। पार्टी पर पिछड़ों का भरोसा कायम है, तो दलितों का बड़ा वर्ग भी साथ आया। टिकट वितरण से चुनाव प्रचार तक की रणनीति में, भाजपा ने अति पिछड़ी जातियों को संजोए रखा। उन्हें सपा के इर्द-गिर्द लामबंद नहीं होने दिया। सहयोगियों और पिछड़े चेहरों की बदौलत भाजपा के पिछड़ा-विरोधी होने के सपा के प्रचार को कुंद करने में सफल रही।
संघर्ष का श्रेय किसी और को न मिले
भाजपा ने सांस्कृतिक सरोकारों को भी लगातार जीवंत बनाए रखा। भगवा वेशधारी संन्यासी योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री होने से सांस्कृतिक एजेंडे को और धार मिली। भाजपा ने अयोध्या में राममंदिर, काशी में बाबा विश्वनाथ धाम के लोकार्पण और मिर्जापुर में विंध्यवासिनी धाम के जीर्णोद्धार को स्मृतियों से विस्मृत नहीं होने दिया। 2024 के चुनाव से पहले राम मंदिर आकार ले लेगा, ऐसे में संघ-भाजपा के लिए यह चुनाव इसलिए खास हो जाता है कि उनके लंबे संघर्ष का श्रेय किसी और दल की सरकार के खाते में न चला जाए, खासकर जिस पर कारसेवकों पर जुल्म करने का आरोप हो।
एक और कदम आगे बढ़ते हुए संदेश दिया कि अयोध्या, काशी के बाद अब मथुरा की बारी है। अयोध्या के दीपोत्सव, काशी की देव दीपावली और बरसाना की होली में शामिल होकर सीएम योगी हिंदुत्व के एजेंडे को गरमाए रहे।
रणनीति : पश्चिमी यूपी में किसानों-जाटों की नाराजगी का नहीं दिखा ज्यादा असर
दो ध्रुवीय चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती की अपेक्षाकृत कम सक्रियता भी भाजपा के भगवा झंडे को बुलंद रखने का कारण बनी। पश्चिम में इसका असर सतह पर न आने के सामाजिक-आर्थिक कारण हैं, लेकिन चुनाव की बयार लखनऊ से पूर्वांचल की ओर बढ़ते-बढ़ते इन मतदाताओं का भाजपा प्रेम गाढ़ा और मुखर होता गया।
पश्चिमी यूपी में भाजपा, खासतौर से अमित शाह की रणनीति का असर रहा कि तीन-चार जिलों को छोड़कर किसान आंदोलन और जाटों की नाराजगी का ज्यादा असर नहीं दिखा। बसपा ने टिकट भी इस तरह बांटे कि सपा को नुकसान हुआ। वहीं, राष्ट्रीय लोकदल भी अपना वोट सपा को नहीं दिला पाया।
भ्रष्टाचार का दाग नहीं, बुलडोजर बाबा से सख्त प्रशासक की छवि बनी
सीएम योगी इस चुनाव में बहुत मजबूत और भरोसेमंद ब्रांड के रूप में उभरे। भाजपा की पुरानी अटल-आडवाणी-जोशी की तिकड़ी की तरह भविष्य में मोदी-शाह-योगी की मजबूत तिकड़ी की राह भी खुली। चुनाव में योगी की मेहनत और बुलडोजर बाबा के जरिये बनी सख्त प्रशासक की छवि ने भी पार्टी के पक्ष में सकारात्मक माहौल बनाया। पांच साल के कार्यकाल में उनका हर जिले को दो से तीन बार नापना, कोरोना कुप्रबंधन के आरोपों-शिकायतों के बीच हर जिला मुख्यालय पहुंचना, लोगों को उम्मीदें देता रहा।
उनपर पूरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा। इसके उलट, माफिया व अपराधियों को लेकर सख्ती ने भी लोगों को राहत दी। कोरोना-काल में पिता की मौत और उनके अंतिम दर्शन करने के बजाय महामारी के खिलाफ मोर्चा लेने ने उनकी छवि को निखारा।
जिन्हें लाए थे डोली उठाने, वे खुद सवार हो बन गए बोझ
इसमें शक नहीं कि अखिलेश यादव बेहतर रणनीति के साथ लड़े। पहले परिवार के बीच के मतभेद दूर किए, फिर भाजपा के पुराने फॉर्मूले पर ही सोशल इंजीनियरिंग की। भाजपा, अखिलेश को अपनी पिच पर लाने की नाकाम कोशिश करती रही।
अखिलेश यह धारणा बनाने में कामयाब रहे कि सियासी जंग बराबरी की है। उनकी रैलियों में उमड़ी भीड़ ने भाजपा को रणनीति बदलने के लिए बाध्य किया। हालांकि, नतीजे ने फिर साफ कर दिया कि सपा सरकार के दौरान अराजक रही कानून-व्यवस्था अखिलेश की दुखती रग है।
सड़क पर संघर्ष करने के प्रति बरती गई उदासीनता और चुनाव से महज चंद महीने पहले दिखाई सक्रियता सपा का सियासी वनवास खत्म नहीं कर सकी। जिन दलबदलू जातीय क्षत्रपों को उन्होंने सपा की डोली उठाने के लिए जुटाया था, वह खुद डोली में सवार होकर उनके लिए बोझ बन गए।
इस चुनाव मे, सपा ने तीसरी बार गठबंधन किया था। पहले कांग्रेस, फिर अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी रही बसपा और इस बार रालोद व छोटे दल। तीनों बार नाकामी मिली। जब तक उसे मुस्लिम-यादव से इतर वोट नहीं मिलेगा, सपा सत्ता में नहीं आ पाएगी, नतीजों का यह संदेश भी साफ है।
बहनजी ने पहचान खोने की कीमत चुकाई
एक दशक से सत्ता से दूर बहनजी अपनी रणनीति से चुनाव लड़ीं। हालांकि, तेवर और सक्रियता वैसी नहीं थी, जो उनकी पहचान थी। सत्ता से लंबे समय की दूरी ने बसपा को इतना अधिक कमजोर कर दिया कि विपरीत परिस्थितियों में भी खड़ा रहने वाला समर्पित वोटर तक साथ छोड़ गया। बसपा के ऊहापोह में फंसे उनके समर्पित मतदाताओं को भाजपा किसी और विकल्प के बजाय ज्यादा नजदीक लगी, उसके बड़े हिस्से ने भाजपा में नया मुकाम ढूंढ लिया।
प्रियंका का जादू बेअसर
कांग्रेस तीन दशक बाद अपने दम पर चुनाव मैदान में थी। मुद्दे लोक-लुभावन थे, लेकिन संगठन के शून्य होने के कारण नतीजों पर कोई असर नहीं दिखा। पार्टी में बचे-खुचे नेता अपनी डफली अपना राग बजाते रहे। प्रियंका ने भी अखिलेश की तरह अंतिम समय में सक्रियता बढ़ाई। संदेश साफ हैं। महज चुनावी साल में सक्रियता बढ़ाकर कोई सत्ता पाने का भ्रम न पाल ले।
जीत की त्रयी : राशन, प्रशासन और महिला चुनावी जीत की जो त्रयी बनी, उसकी पहचान राशन, प्रशासन और महिला के तौर पर हो सकती है। इस त्रयी से ही राज्य में वर्ग व जातिविहीन मतदाताओं का बड़ा समर्थक समूह तैयार हुआ, जिसे पीएम मोदी विकास योद्धा कहते हैं। यह चुनाव आधी आबादी के राजनीतिक ताकत के तौर पर उभार के रूप में याद रहेगा। नतीजे सभी दलों के लिए साफ संदेश है, गरीबों की सुनो, वह तुम्हारी सुनेगा। वैयक्तिक लाभकारी योजनाओं ने मतदाताओं के बड़े वर्ग की पृष्ठभूमि इसी आधी आबादी ने तैयार की।