कमांडर इन चीफ को दी गई सलामी
102वीं पुण्य तिथि पर यादकी गई गेंदा लाल दीक्षित की चुनौतिय
आगरा। जनपद के ग्राम मई के गेंदालाल दीक्षित को उनके अमर बलिदान की खातिर देश भर में 102वीं पुण्य तिथि पर नमन किया गया। बंगाल से लेकर चंबलकी वादियों में जगह जगह उनको लोगों ने उनके स्वाधीनता संग्राम के दिनों के तौर त्रिकोण को एक दूसरे को सुनाकर नमन किया।
कोई उनके जन्म स्थल मई गया जहां उनके शिलालेख पर श्रृद्धा भाव से भावांजलि दीं। वहीं कोई उनके कर्म स्थली ओरैया स्थिति चौक पंहुचा जहां आयोजित कार्य कर्मों में भाग लिया। वहीं कुछ लोग आगरा स्थिति संजय प्लेस स्थिति शहीद स्मारक पर पहुंचे। जहां उन्होंने कमांडर इन चीफ के लेखक शाह आलम द्वारा पहचानी गई गेंदा लाल जीकी प्रतिमा को पहले साफ किया। साथ ही बिस्मिल जी असफाक उल्ला खां ,चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और अन्य शहीदों की प्रतिमाओं को साफ किया। जिसके बाद वहां उपस्थित लोगों को पहले गेंदा लाल दीक्षित के बारे में जानकारी दी।
इस समय शाह आलम द्वारा लिखित पुस्तक कमांडर इन चीफ शीर्षित पुस्तक के एक हिस्से को शंकर देव तिवारी ने पढ़कर सुनाया।
परतन्त्र भारत में स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिये उत्तर प्रदेश के जिला मैनपुरी में सन् १९१५-१६ में एक क्रान्तिकारी संस्था की स्थापना हुई थी जिसका प्रमुख केन्द्र मैनपुरी ही रहा। मुकुन्दी लाल, दम्मीलाल, कढ़ोरीलाल गुप्ता, सिद्ध गोपाल चतुर्वेदी, गोपीनाथ, प्रभाकर पाण्डे, चन्द्रधर जौहरी और शिवकृष्ण आदि ने औरैया जिला आगरा तहसील बाह के ग्राम मई निवासी पण्डित गेंदालाल दीक्षित के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध काम करने के लिये उनकी संस्था शिवाजी समिति से हाथ मिलाया और एक नयी संस्था मातृवेदी की स्थापना की। इस संस्था के छिप कर कार्य करने की सूचना अंग्रेज अधिकारियों को लग गयी और प्रमुख नेताओं को पकड़कर उनके विरुद्ध मैनपुरी में मुकदमा चला। इसे ही बाद में अंग्रेजों ने मैनपुरी षडयन्त्र कहा। इन क्रान्तिकारियों को अलग-अलग समय के लिये कारावास की सजा हुई।
मैनपुरी षडयन्त्र की विशेषता यह थी कि इसकी योजना प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश के निवासियों ने ही बनायी थी। यदि इस संस्था में शामिल मैनपुरी के ही देशद्रोही गद्दार दलपतसिंह ने अंग्रेजी सरकार को इसकी मुखबिरी न की होती तो यह दल समय से पूर्व इतनी जल्दी टूटने या बिखरने वाला नहीं था। मैनपुरी काण्ड में शामिल दो लोग – मुकुन्दीलाल और राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ आगे चलकर सन् १९२५ के विश्वप्रसिद्ध काकोरी काण्ड में भी शामिल हुए। मुकुन्दीलाल को आजीवन कारावास की सजा हुई जबकि राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ को तो फाँसी ही दे दी गयी। क्योंकि वे भी मैनपुरी काण्ड में गेंदालाल दीक्षित को ग्वालियर के किले से छुड़ाने की योजना बनाने वाले मातृवेदी दल के नेता थे। यदि कहीं ये लोग अपने अभियान में कामयाब हो जाते तो न तो सन् १९२७ में राजेन्द्र लाहिडी व अशफाक उल्ला खाँ सरीखे होनहार नवयुवक फाँसी चढते और न ही चन्द्रशेखर आजाद जैसे नर नाहर तथा गणेशशंकर विद्यार्थी सरीखे प्रखर पत्रकार की सन् १९३१ में जघन्य हत्याएँ हुई होतीं।
इस तरह की कई बातें हैं जिनके जानने से रोंगटे खड़े हो जातेहैं।
ऐसे अमर बलिदानी पंडित गेंदालाल दीक्षित की प्रतिमा पर लखनऊ से पधारे धर्मेंद्र सिंह , वी पी सिंह,विजतेद्र गुप्ता, शंकर देव तिवारी ,के अलावा अन्य लोगों ने भी माल्यार्पण कर श्रद्धांजलि दी।