रिपोर्ट-श्रवण कुमार मिश्र मिश्रित सीतापुर ।
मिश्रित सीतापुर / मिश्रित नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र की विश्व विख्यात 84 कोसीय धार्मिक होली परिक्रमा का शुभारम्भ युगो युगो से होता चला आ रहा है । सतयुग में महर्षि दधीचि के द्वारा यह परिक्रमा की गई थी । जिसका अनुसरण हर युग में होता चला आ रहा है । त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अपने कुटुंबजनों के साथ इस क्षेत्र की परिक्रमा की थी । द्वापरयुग में श्रीकृष्ण के अलावा पाण्डवों द्वारा इस धार्मिक क्षेत्र की परिक्रमा की गई थी । कलयुग में उसी का अनुशरण किया जा रहा है । यह क्षेत्र विश्व का केन्द्र बिन्दु माना जाता है । यहीं से मनु सतरूपा व्दारा सृष्टि की रचना का भी आरम्भ होना बताया जाता है । यहीं पर आदि गंगा गोमती नदी के तट पर मनु सतरूपा द्वारा हजारों वर्षों तक कठोर तप किया गया था । इस 84 कोस की भूमि पर 33 कोटि देवी देवताओं का वास माना जाता है । यहीं पर 88 हजार ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम बनाकर कठिन तपस्या की थी । जिसके प्रमांण मिश्रित और नैमिषारण्य में आज भी मौजूद है ।
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ऐसे हुआ 84 कोसीय परिक्रमा का शुभारंभ ।
शास्त्रों में उल्लेख मिलता है । कि सतयुग काल में वृत्तासुर नामक दैत्य ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया था । देवताओं ने देवलोक की रक्षा के लिए वृत्तासुर पर अपने दिव्य अस्त्रों का प्रयोग किया । परन्तु सभी अस्त्र-शस्त्र उसके कठोर शरीर से टकराकर चकनाचूर हो गए । अंत में देवराज इंद्र को अपने प्राण बचाकर भागना पड़ा । और ब्रह्मा-विष्णु व शिव जी शरण में पहुंचे तो तीनों देवताओ ने कहा कि अभी संसार में ऐसा कोई शस्त्र नहीं है । जिससे वृत्तासुर दैत्य का वध हो सके । त्रिदेवों की यह बात सुनकर इंद्र मायूस हो गये । इन्द्र देव की स्थिति को देख कर भगवान शिव ने उन्हें उपाय बताया । कि पृथ्वी लोक पर परम तपस्वी महर्षि दधीचि रहते है । उन्होंने तप साधना से अपनी हड्डियों को इतना कठोर बना लिया है । कि उनकी हड्डियों से बज्र आदि अमोघ अस्त्र बनाया जाए । तभी वृत्तासुर दैत्य का बिनास हो सकता है । उनकी शरण में जाओ और क्षमा याचना करके लोक कल्याण हेतु अस्थियों का दान करने की याचना करो । इन्द्र ने ऐसा ही किया। वह मिश्रित क्षेत्र में स्थित उनके आश्रम पर आए और महर्षि दधीचि को पूरा वृतांत बताया । और उनसे अस्थियों का दान देने के लिए क्षमा याचना की । परन्तु महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियों का दान देने से पहले तीर्थाटन की इच्छा जताई ।
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33 कोटि (श्रेष्ठ) देवी-देवताओं को यहां 84 कोस की परिधि में दिया गया था स्थान । नही आए थे प्रयागराज ।
इस दौरान महर्षि दधीचि ने इन्द्र से कहा, देवराज मैंने अपने जीवन काल में एक भी तीर्थाटन नहीं किया है । सिर्फ तप , साधना में ही लीन रहा हूं । मेरी इच्छा है । कि संसार के समस्त तीर्थों और समस्त देवताओं के दर्शन कर लूं । फिर अपनी अस्थियों का दान कर दूंगा । यह सुन कर इन्द्र देव सोच में पड़ गये । और सोंचा कि महर्षि दधीचि सभी तीर्थ करने चले गये तो बहुत समय बीत जायेगा । इस पर देवराज इंद्र ने संसार के समस्त तीर्थों और 33 कोटि (श्रेष्ठ) देवी-देवताओं को नैमिषारण्य क्षेत्र में आमंत्रित किया । जो यहां की 84 कोस की परिधि में अलग अलग स्थान पर ठहरे ।
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महर्षि दधीचि ने फाल्गुन मांस की पूर्णिमा तिथि को किया था अस्थियों का दान ।
महर्षि दधीचि ने एक-एक कर सभी तीर्थों और देवताओं के दर्शन करते हुए कुछ ही समय में अपने आश्रम पहुंचे । जहां पर सभी तीर्थों के जल को एक सरोवर में मिलाया गया । उसी में स्नान करके फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को गायों से अपने शरीर को चटाकर अस्थियों का दान देवताओ को दे दिया । जिस तीर्थ में संसार के सभी तीर्थों के जल को मिलाया गया उसे ही आज दधीचि कुंड तीर्थ के नाम से जाना जाता है । और जिस जगह पर यह कुंड स्थित है । उस क्षेत्र को मिश्रित के नाम से जाना जाता है । तभी से प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास की प्रतिपदा तिथि से शुरू होने वाले इस क्षेत्र के 84 कोसीय परिक्रमा में लाखों की संख्या में साधू संत व श्रद्धालु भाग लेने आते है । मान्यता है । कि जो भी श्रद्धा भाव से यहां की 84 कोसीय परिक्रमा कर लेता है । वह 84 लाख योनियों के बंधन से मुक्त हो जाता है ।
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गंगा-जमुनी तहजीब का प्रत्यक्ष उदाहरण है यह धार्मिक होली परिक्रमा ।
इस धार्मिक परिक्रमा की विशेष बात यह है । कि चार पड़ावों का प्रतिनिधित्व हरदोई जनपद करता है । शेष पड़ावो का प्रतिनिधुत्व सीतापुर जनपद करता है । इसमें सभी वर्गो के लोग संत महंतो की सेवा और भंडारा आदि करते है । जिससे यह होली परिक्रमा मेला गंगा जमुनी तहजीब का प्रत्यक्ष उदाहरण है ।