ग़ज़ल

ग़ज़ल

इक जुगनू को चंदा के मुक़ाबिल न कहेंगे
हम ख़ुद को कभी आपके क़ाबिल न कहेंगे

क्या शान से बैठा मेरे रुख़सार पे आकर
क़ातिल है इसे गाल का हम तिल न कहेंगे

कहने को धड़कता रहे पर दर्द न समझे
पत्थर ही कहेंगे उसे हम दिल न कहेंगे

मजबूर है मज़दूरी करे सर को झुकाये
हालात से टूटा उसे बुज़दिल न कहेंगे

गर प्यार से जीता नहीं संसार को हमनें
हो ताज भी हासिल उसे हासिल न कहेंगे

सच्चाई के रस्ते पे सुना मौत का है डर
इस ख़ौफ़ से क्या हम भी मसाइल न कहेंगे

*डॉ0 शोभा त्रिपाठी*
एसोसिएट प्रोफेसर ,हिन्दी
नारी शिक्षा निकेतन पी0जी0 कॉलेज
लखनऊ, उ0,प्र0

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