
विष्णु सिकरवार
आगरा। माँ ही मंदिर माँ ही मस्जिद,माँ ही चर्च और गुरुद्वारा है।
माँ से ही हर रोज एक दिन,
क्यूँ माँ- माँ आज पुकारा है?सभ्यता-संस्कृति ये बही किधर है?
भारतीय संस्कृति ये अपनी नहीं है। दिवसों में है रिश्तों को लपेटा,मदर्स,फादर्स ,सिस्टर्स,ब्रदर्स डे बाँधा। भूल गए क्यूँ तुम आज नंदन?
घंटे घड़ियालों से होता जिनका वंदन।
रात को लोरी माँ गाके सुलाती,सुबह सवेरे फिर वो हमें उठाती।
मुंडेर पे पंछी भी आ जाते,
माँ के हाथ से दाना खाते।
पीछे कहाँ फिर मोती रह जाता?
अपने हिस्से की रोटी खा जाता।
चूड़ियाँ खन- खन हाथों की करतीं,रुनझुन- रुनझुन पायलिया पावों में बजती।
साँझ-सवेरे जब माँ सजती सँवरती,किसी परी से कम न लगती। आज सब कुछ बदल गया,दिन रिश्तों का रह गया है।दामाद बेटी को ले गया है,
बहू ने बेटा छीन लिया है।
घर में कोई खुशी नहीं है,
वृद्ध माँ-बाप को जगह नहीं है। वृद्धाश्रम भी फिर खुल गए हैं,
हाय! कलियुगी लोग हो गए हैं। लेखक सीमा रहस्यमयी।